क्या गांधी जी को विभाजन की जानकारी नहीं दी गई थी?

Partition: क्या गांधी जी को विभाजन की जानकारी नहीं दी गई थी?

Partition Of India

Partition: 14 और 15 जून 1947, आज़ादी की सुगंध महसूस होने लगी थी. पूरा होने को था आज़ाद हवाओं में सांस लेने का बरसों पुराना सपना. लेकिन, एक डर भी था, क्या जिन्ना की कोशिशें सफल हो जाएंगी. देश को बांटने में फिर कापरस्त कामयाब हो जाएंगे? राजनीति की दक्षिणपंथी राष्ट्रीय सोच की धारा हो या फिर मध्यमार्गी, कोई नहीं चाहता था कि बंटवारा हो.

भारत देश के दिलों में दरार पड़ चुकी थी. इसे पाटने के लिए दो तरह की कोशिशें हो रही थीं. हालांकि कांग्रेसी धारा के अगुआ लोगों का एक वर्ग मान चुका था कि इस दरार को पाटा नहीं जा सकता. इसलिए उन्होंने आर्यावर्त के बीच धार्मिक आधार वाली चारदीवारी बनाने की बात मान ली थी. बेशक यह प्रस्ताव तत्कालीन ब्रिटिश सरकार की उस नीति की देन था. जिसके तहत मजबूरी में आज़ादी दे रही अंग्रेज़ सरकार बाद के दिनों में फायदा उठाने की तैयारी में थी. ब्रिटिश सरकार को लगता था कि भले ही आज़ादी मिल जाए. लेकिन विभाजित राष्ट्र अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता. इसलिए भविष्य में उसे अंग्रेज़ों को पूछना ही पड़ेगा.

देश का भाग्य बदलने वाली क्रांति

Partition: देश का भाग्य बदलने वाली 1942 की क्रांति के युवा नायक डॉक्टर राम मनोहर लोहिया बंटवारे को अंग्रेज़ सरकार की कारस्तानी मानते रहे. लोहिया ने विभाजन के कारणों को लेकर एक किताब भी लिखी है  भारत विभाजन के गुनहगार’. इस पुस्तक में उन्होंने बंटवारे के लिए सिर्फ जिन्ना और उनकी राजनीति को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया, बल्कि वह इतिहास को भी इसके लिए जिम्मेदार मानते हैं.

लोहिया मानते हैं कि छह-सात सौ साल के बीच हिंदू-मुस्लिम एकता का चाहे जितना भी पाठ पढ़ाया गया हो. लेकिन अकबर और जहांगीर के शासन को छोड़ दें, तो दिलों की दरार नहीं पटी. भारत के हिंदू और मुसलमान. एक ही इतिहास के प्रति अलग- अलग दृष्टिकोण रखते हैं.

ऐसे हिंदू विरले ही हैं, जो एक मुसलमान शासक या इतिहास पुरुष को अपने पुरखे के रूप में स्वीकार करें. उसी तरह एक मुसलमान विरला ही होगा, जो किसी हिंदू इतिहास पुरुष को अपना पुरखा माने. लोहिया एक तरह से भारत विभाजन के लिए दोनों कौमों और धर्म वालो की इतिहास दृष्टि को बुनियाद मानते हैं. अगर दोनों कौमों ने इतिहास की एक जैसी परिभाषा स्वीकार की होती.  तो वो शांति के साथ रह रही होतीं और देश विभाजन का सवाल ही नहीं उठता.

तो क्या यह मान लें कि सिर्फ इतिहास को लेकर हिंदुओं और मुसलमानों का अपना-अपना नज़रिया ही भारत के बंटवारे का जिम्मेदार रहा?

Partition: जब विभाजन के प्रस्ताव को कांग्रेस के नेताओं ने स्वीकार कर लिया. तब गांधी नोआखाली में थे. हिंदू-मुस्लिम दंगों की आग बुझाने के लिए दिल्ली से दूर रहे गांधी को विभाजन का आभास तक नहीं हुआ. उन्हें जब जानकारी मिली, तो उन्होंने कठोर बयान दिया था, बंटवाराय उनकी लाश पर होगा. गांधी के इस बयान से बंटवारे को सैद्धांतिक तौर पर स्वीकार कर चुके कांग्रेसी नेता हिल गए थे. 15 जून 1947, दिल्ली की तपती गर्मी मशहूर है.

गर्मी की इसी दोपहर को कांग्रेस कार्यसमिति ने विभाजन के प्रस्ताव को मंजूरी दी. हालांकि यह बैठक एक दिन पहले यानी 14 जून को जब शुरू हुई. तब बाहर तेज तपिश भरा मौसम था और अंदर विभाजन के प्रस्ताव की तुर्शी. कार्यसमिति की बैठक में सदस्यों के अलावा दो और लोगों को बुलाया गया था. सन 42 के आंदोलन के हीरो जयप्रकाश नारायण और लोहिया. लोहिया के मुताबिक, बैठक में महात्मा गांधी ने बंटवारे के प्रस्ताव पर सवाल उठाया. लोहिया ने लिखा तो नहीं है, लेकिन बैठक में गांधी का जैसा स्वर रहा, उससे लगता था कि वह भी बेबस हो चुके थे. उन्होंने कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में माउंटबेटन योजना की जानकारी पहले ना दिए जाने के लिए सीधे वल्लभभाई पटेल और जवाहरलाल नेहरू से सवाल पूछा. दोनों में से किसी ने उन्हें सही और सीधा जवाब नहीं दिया.

नेहरू का टोकना पड़ा भारी?

Partition: इसके पहले कि महात्मा गांधी अपनी बात पूरी कह पाते, नेहरू ने तनिक आवेश में आकर बीच में उन्हें टोका और कहा कि वो उनको पूरी जानकारी बराबर देते रहे हैं. महात्मा गांधी के दोबारा दोहराने पर कि उन्हें विभाजन की योजना के बारे में जानकारी नहीं थी. नेहरू ने अपनी पहले कही बात को थोड़ा-सा बदल दिया. उन्होंने कहा कि नोआखाली इतनी दूर है और कि वो उस योजना के बारे में विस्तार से ना बता सके होंगे. उन्होंने गांधी जी को विभाजन के बारे में मोटे तौर पर लिखा था. ये तो साफ़ है कि महात्मा गांधी को विभाजन की योजना के बारे में अंधेरे में रखा गया.

कहीं गांधी जी की बात दुनिया मान ना ले, इसलिए उनके नाम लिखे पत्रों को नेहरू ने बाद में प्रकाशित कराया. लेकिन, लोहिया मानते रहे कि उन पत्रों में साफ़ कुछ भी नहीं लिखा था. लोहिया का निष्कर्ष है कि विभाजन को लेकर पटेल और नेहरू ने बंटवारे की बात पूरे होने तक गांधी जी  को बिचका देना ही सर्वोत्तम माना था. आपको बता दे की कार्यसमिति की बैठक में गांधी जी को जब आभास हो गया कि कांग्रेस के दोनों सर्वोच्च नेताओं ने विभाजन की योजना मान ली है, तो उन्होंने कार्यसमिति से अपील की. कांग्रेस दल अपने नेताओं के किए वादे को स्वीकार कर ले. वादा यानी विभाजन का प्रस्ताव.

बैठक में क्यों खामोश थे कांग्रेस के बड़े नेता?

Partition: लोहिया अपनी किताब में लिखते हैं. की उस बैठक में मौलाना अबुल कलाम आजाद की स्थिति बहुत अजीब रही. इस बैठक के दौरान पूरे दो दिनों तक लोगों से ठसाठस भरे कमरे के एक कोने में एक कुर्सी पर बैठे मौलाना आजाद लगातार अबाध गति से सिगरेट का धुआं उड़ाते रहे और एक शब्द भी नहीं बोले. मौलाना आजाद की बाद के दिनों में एक किताब आई ‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ यानी भारत ने जीती आज़ादी.

इस किताब में उन्होंने लिखा है कि जब विभाजन के प्रस्ताव पर कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में चर्चा हुई. तब प्रस्ताव का विरोध करने वाले वह अकेले व्यक्ति थे. लेकिन, ‘भारत विभाजन के गुनहगार’ में लोहिया ने उनके इस दावे को खारिज कर दिया है. लोहिया तो यहां तक तंज कसते हैं कि सिगरेट के धुएं के साथ उन्होंने जिस तरह खामोशी से विभाजन को मंजूर किया. शायद उसकी ही वजह से वह दशक भर तक केंद्र के मंत्री रहे.

कांग्रेस कार्यसमिति ने कब दी विभाजन को मंजूरी?

Partition: बता दे की  42 के आंदोलन के दिनों में नेहरू ब्रिटिश वायसराय की कौंसिल के सदस्य के तौर पर काम करने को तैयार हो गए थे, जिसे ब्रिटिश योजना के तहत दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान भारत के मंत्रिमंडल के तौर पर काम करना था. विश्वयुद्ध के बाद भारत को आज़ाद कर दिया जाता और वही मंत्रिमंडल देश की कमान संभाल लेता.

नेहरू की इस सोच की वजह लोहिया मानते हैं, उनका सुभाष चंद्र बोस का विरोध. उन दिनों सुभाष चंद्र बोस जापान के साथ ब्रिटिश और मित्र सेनाओं के ख़िलाफ़ लड़ रहे थे. नेहरू को सुभाष से ईर्ष्या थी. इसी ईर्ष्याबोध के चलते नेहरू ने ब्रिटिश सरकार की योजना में शामिल होने की तैयारी कर ली थी. लोहिया आखिर में इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि इतिहास बोध. जिन्ना की जिद के साथ-साथ विभाजन के लिए जिम्मेदार भारत के बुढ़ाते नेताओं की चिंता भी रही. चिंता ये कि अगर आज़ादी का संघर्ष लंबा छिड़ा.  तो सत्ता के सुख से वे वंचित रह सकते हैं. इस तरह भारत का बंटवारा मंजूर कर लिया गया. ब्रिटिश सरकार हिंदुस्तानी दिलों की दरार का फायदा उठाने के अपने मंसूबे में कामयाब रही.

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