नक्सलवाद और शांति वार्ता का लंबा इतिहास

छत्तीसगढ़ में पिछले तीन दशकों से नक्सलवाद एक गंभीर चुनौती बना हुआ है। बस्तर समेत सात जिलों में माओवादी हिंसा ने न सिर्फ विकास को प्रभावित किया है, बल्कि सुरक्षा बलों और आम नागरिकों की जिंदगी पर भी गहरा असर डाला है। राज्य पुलिस, सीएएफ, डीआरजी, एसटीएफ और पैरामिलिट्री फोर्स लगातार एंटी-नक्सल ऑपरेशन चला रही हैं।
कई सरकारों ने रणनीतियां बनाईं, लेकिन नक्सल समस्या का स्थायी समाधान आज भी दूर की बात लगती है।
शांति वार्ता की शुरुआत (2009)
- साल 2009 में पहली बार माओवादियों और सरकार के बीच शांति वार्ता की पहल हुई।
- उस समय राज्य में रमन सिंह की बीजेपी सरकार थी।
- 19 फरवरी 2009 को माओवादियों ने वार्ता की इच्छा जताई।
- हालांकि, गृह मंत्री ननकी राम कंवर ने साफ कहा कि हमले बंद होने तक बातचीत संभव नहीं है।
2010 और 2016 के प्रयास
- अप्रैल 2010 में रमन सिंह ने कहा कि बातचीत का विकल्प हमेशा खुला रहना चाहिए।
- 23 अक्टूबर 2016 को गृह मंत्री रामसेवक पैकरा ने भी नक्सलियों से वार्ता की तत्परता जताई।
- 2018 चुनावों में कांग्रेस ने शांति वार्ता का वादा किया, लेकिन सत्ता में आने के बाद ठोस कदम नहीं उठाए।
माओवादियों की शर्तें और विवाद (2021)
18 मार्च 2021 को माओवादियों ने वार्ता के लिए तीन शर्तें रखीं:
- संघर्षग्रस्त इलाकों से सशस्त्र बल हटाना।
- पार्टी पर लगे प्रतिबंध हटाना।
- जेलों में बंद नेताओं की रिहाई।
गृह मंत्री ताम्रध्वज साहू ने जवाब दिया कि बातचीत बिना शर्त होनी चाहिए।
हालिया पहल (2022–2025)
- मई 2022 में माओवादी नेताओं ने फिर वार्ता की इच्छा जताई।
- सीएम भूपेश बघेल ने कहा कि वार्ता तभी संभव है जब माओवादी संविधान में विश्वास जताएं।
- जनवरी 2024 में गृह मंत्री विजय शर्मा ने बिना शर्त बातचीत की घोषणा की।
- 2 अप्रैल 2025 को माओवादी केंद्रीय समिति ने भी सरकार से वार्ता की तैयारी दिखाई।
अन्य राज्यों में विफल कोशिशें
- आंध्र प्रदेश (2002, 2004): नक्सलियों से बातचीत हुई, लेकिन नतीजा नहीं निकला।
- झारखंड (2010): शिबू सोरेन सरकार की कोशिशें भी शर्तों के कारण विफल रहीं।
- पश्चिम बंगाल (2011): ममता बनर्जी ने वार्ता शुरू की, लेकिन किशनजी की मौत के बाद प्रक्रिया टूट गई।
निष्कर्ष
छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद की समस्या 30 साल से ज्यादा समय से जटिल बनी हुई है।
- माओवादी हमेशा शर्तों पर वार्ता करना चाहते हैं।
- सरकारें बिना शर्त बातचीत की बात करती हैं।
इसी असहमति की वजह से शांति प्रक्रिया हर बार अधर में रह जाती है। अब तक का अनुभव यही बताता है कि सफलता तभी संभव है जब दोनों पक्ष गंभीर सहयोग और भरोसा दिखाएं।

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