CJI गवई ने धनखड़ को सुना डाला,संसद सर्वोपरि या सुप्रीम ?

“सीजेआई का मंच से प्रहार: ‘संविधान सर्वोपरि है’”

संसद सर्वोपरि हैका नारा देने वाले उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ को आखिरकार एक बार फिर भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी. वाई. चंद्रचूड़ के उत्तराधिकारी और वर्तमान सीजेआई बी. आर. गवई ने भरे मंच से करारा जवाब दे ही दिया है। जिस अंदाज़ में धनखड़ ने पहले सुप्रीम कोर्ट को भरे मंच से चेतावनी दी थी, उससे यह साफ़ हो गया था कि वे अब न्यायपालिका की निगाह में आ चुके हैं। लेकिन अब जो हुआ है, वह अभूतपूर्व है—सीजेआई गवई ने सार्वजनिक रूप से उपराष्ट्रपति के बयानों को उद्धृत करते हुए न केवल उन्हें आईना दिखाया, बल्कि पूरे देश के सामने यह भी स्पष्ट कर दिया कि संविधान ही सर्वोपरि है, न कि संसद।

दरअसल, संसद और न्यायपालिका के बीच की खींचतान कोई नई नहीं है, लेकिन हाल के समय में यह टकराव एक नया रूप ले चुका है। बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने कुछ ऐसे निर्णय सुनाए जिनमें राष्ट्रपति की ओर से विधेयकों को पास करने में देरी की समयसीमा निर्धारित की गई थी। इसी फैसले पर भड़कते हुए उपराष्ट्रपति धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट और पूर्व CJI जस्टिस खन्ना पर भी तीखे शब्दों में निशाना साधा था। उन्होंने दो टूक कहा था कि संसद सर्वोच्च संस्था है और संविधान कैसा होगा, इसका निर्णय केवल सांसद ही करेंगे। यानि, उनके मुताबिक संविधान संसद और सांसदों की इच्छा के अनुसार चलेगा।

यह बात उन्होंने करीब दो महीने पहले एक सार्वजनिक कार्यक्रम में कही थी, और तब से ही विवादों की चिंगारी सुलगने लगी थी। यही नहीं, बीजेपी के कई नेताओं ने भी बार-बार सुप्रीम कोर्ट और जजों पर निशाना साधते हुए संविधान की मूल भावना पर ही सवाल खड़े किए हैं। लेकिन अब चुप्पी टूट चुकी है। सीजेआई गवई ने साफ़ कर दिया कि लोकतंत्र के तीनों स्तंभकार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिकासंविधान के अधीन हैं, न कि इसके ऊपर।

सीजेआई गवई का यह बयान अमरावती में आयोजित उनके स्वागत समारोह में आया, जहां उन्होंने कहा, “कुछ लोग कहते हैं कि संसद सर्वोच्च है, लेकिन मेरी राय में संविधान ही सर्वोपरि है।” उन्होंने ये भी स्पष्ट किया कि संसद के पास संविधान संशोधित करने का अधिकार तो है, लेकिन वह संविधान के मूल ढांचे को कभी नहीं बदल सकती। यह सीधा-सीधा धनखड़ के बयान का जवाब था, जिसमें उन्होंने कहा था कि संसद तय करेगी संविधान कैसा होगा।

ध्यान देने वाली बात यह है कि इससे पहले भी सीजेआई गवई ने भारत में संवैधानिक मूल्यों और न्यायिक स्वतंत्रता को लेकर बयान दिए हैं। उन्होंने मोदी सरकार के किसी भी ऑफर को ठुकराते हुए राजनीति में जाने से इनकार किया था, जिससे यह स्पष्ट हो गया कि वह सत्ता के दबाव से बिल्कुल अलग और स्वतंत्र रूप से काम कर रहे हैं।

बीजेपी और उनके समर्थक बार-बार यह जताने की कोशिश करते हैं कि संसद ही सर्वोच्च संस्था है और सुप्रीम कोर्ट को संसद के फैसलों में दखल नहीं देना चाहिए। यही तर्क उपराष्ट्रपति धनखड़ ने भी आर्टिकल 142 के संदर्भ में दिया, जिसमें उन्होंने इसे सरकार के खिलाफ एक परमाणु बम” तक करार दे दिया। उनका यह बयान उस समय आया जब सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु गवर्नर और सरकार के बीच बिलों को लेकर जारी खींचतान पर निर्णय देते हुए राष्ट्रपति के लिए 3 महीने की समयसीमा तय की थी।

सीजेआई गवई के हालिया बयान के पीछे भी यही पृष्ठभूमि थी—वो चाहते थे कि सत्ता के गलियारों में बैठे लोग यह समझें कि संविधान कोई मनमाफिक कागज़नहीं, बल्कि भारत का बुनियादी ढांचा है। इसीलिए उन्होंने खुले मंच से यह कहना जरूरी समझा कि चाहे उपराष्ट्रपति हों या सत्ताधारी दल के सांसद—कोई भी संविधान से ऊपर नहीं हो सकता।

अब जबकि सीजेआई ने खुद धनखड़ के बयानों को कोट करते हुए उन्हें जवाब दिया है, यह लड़ाई संसद बनाम सुप्रीम कोर्ट से आगे बढ़कर सीजेआई बनाम उपराष्ट्रपति के टकराव में तब्दील होती दिख रही है। माना जा रहा है कि जल्द ही उपराष्ट्रपति की ओर से इस बयान पर कोई तीखी प्रतिक्रिया सामने आ सकती है। लेकिन सवाल यह है कि क्या संविधान को बार-बार संसद के अधीन बताने की यह राजनीति देश के लोकतंत्र को कमजोर नहीं कर रही?

अब वक्त आ गया है जब हर संवैधानिक संस्था को यह स्वीकार करना होगा कि भारत की आत्मा संविधान हैना कि कोई पद, ना कोई नेता, ना ही कोई संस्था। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि इस टकराव का अगला अध्याय किस ओर जाता है।

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