नीतीश की सियासी चालों ने बदला बिहार का राजनीतिक परिदृश्य
2025 चुनाव से पहले नए समीकरण बनते नजर आए

2024 की शुरुआत में बिहार की राजनीति में हलचल मच गई जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक बार फिर अप्रत्याशित रूप से राजनीतिक पाला बदल लिया और अपने पुराने सहयोगी बीजेपी के साथ हाथ मिला लिया।
राष्ट्रीय स्तर पर भूमिका निभाने की महत्वाकांक्षा छोड़कर नीतीश ने उस INDIA गठबंधन को अलविदा कह दिया जिसे वे खुद गढ़ने में अग्रणी थे। सत्ता में बने रहने की उनकी पुरानी रणनीति फिर से सामने आई, जिससे राजनीतिक गलियारों में हलचल तेज हो गई और बिहार की सियासत ने एक नया मोड़ ले लिया।
शायद नीतीश कुमार ने पहले ही भांप लिया था कि नरेंद्र मोदी को पूरी तरह हराना संभव नहीं है, केवल उनकी शक्ति को कुछ हद तक घटाया जा सकता है। इसी सोच के साथ उन्होंने बीजेपी का साथ देने का फैसला किया — एक ऐसा समर्थन, जिस पर अब केंद्र की सत्ता में बने रहने के लिए बीजेपी को भरोसा करना पड़ रहा है।
इस गठबंधन के बदले में, 73 वर्षीय नीतीश कुमार को बिहार में बीजेपी और उसके सभी छोटे सहयोगी दलों का समर्थन मिल गया है, जहां 2025 में विधानसभा चुनाव होने हैं।
हालांकि कुछ लोग, जैसे कि चुनावी रणनीतिकार से नेता बने प्रशांत किशोर, यह लगातार कहते रहे हैं कि नीतीश अब पहले जैसे ताकतवर नहीं रहे, फिर भी वह आज भी खासा प्रभाव रखते हैं। प्रशांत किशोर की खुद की पार्टी, जन सुराज, को लेकर काफी चर्चा रही है, लेकिन हालिया उपचुनावों में उसका प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि जनता के बीच वह कितना प्रभाव छोड़ पाते हैं।
47 वर्षीय किशोर को पूरा भरोसा है कि उनकी पार्टी आने वाले वक्त में एनडीए की सबसे बड़ी विपक्षी ताकत बनकर उभरेगी। उनकी यह उम्मीद काफी हद तक इस बात पर टिकी है कि जब से नीतीश कुमार बीजेपी में लौटे हैं, तब से इंडिया गठबंधन में भारी भ्रम और बिखराव है।
नीतीश कुमार के साथ सत्ता में रहने तक सरकार का हिस्सा रहे राजद और कांग्रेस अपने विधायकों को एकजुट रखने में असफल रहे। नई सरकार बनते ही दोनों दलों के कई विधायक एनडीए के खेमे में जा मिले।
कुछ महीनों बाद हुए लोकसभा चुनावों में बिहार में इंडिया गठबंधन का प्रदर्शन निराशाजनक रहा। यह स्थिति तब और चौंकाती है जब उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा और राजस्थान जैसे बीजेपी के पारंपरिक गढ़ों में विपक्षी गठबंधन ने अच्छा प्रदर्शन किया।
राजद, कांग्रेस और वामदलों के ‘महागठबंधन’ की हालत बिहार में लगातार बिगड़ती रही। उपचुनावों में भी वे लड़खड़ाते नजर आए और अपनी मौजूदा सीटें तक नहीं बचा सके।


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