’जहाँ झुग्गी वहाँ मकान’ – वज़ीरपुर में ढहाए गए घरों के बाद यह वादा धराशायी


16 जून को दिल्ली के वज़ीरपुर स्थित रेलवे ट्रैक के किनारे करीब 200 झुग्गियाँ गिरा दी गईं, जो एक व्यापक अतिक्रमण विरोधी अभियान का हिस्सा थीं। यहां रहने वाले ज्यादातर उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रवासी मजदूर थे। उन्हें सरकार की योजनाओं के तहत मकान मिलने का वादा किया गया था, लेकिन आज तक किसी को आवंटन नहीं मिला। विस्थापित होकर ये लोग अब रिक्शा या पेड़ों के नीचे रात गुजार रहे हैं, किसी समाधान के इंतजार में जो अभी तक नहीं आया।

कागज़ात जमा किए, लेकिन मौका नहीं मिला
रिहायशी दावा करते हैं कि उन्होंने प्रधानमंत्री आवास योजना (PMAY) में नामांकन के लिए सभी दस्तावेज जमा किए थे — आधार, राशन कार्ड, वोटर आईडी, बिजली के बिल तक। अधिकारियों ने बताया था कि उनके नाम ऑफिसियल सर्वे में दर्ज हैं।
लेकिन जब पात्र लाभार्थियों की सूची आई, तो अधिकतर नाम गायब थे। 2015 के सर्वे में जो लोग छोटी उम्र में (18 वर्ष से कम) थे, उन्हें पात्रता से बाहर रखा गया। कई परिवार गलती से गलत वर्तनी या तकनीकी मेल न खाने की वजह से सूची में नहीं आ सके।

“हमसे कहा गया था कि हमें फ्लैट मिलेगा; हमने सब कुछ दे दिया। लेकिन स्क्रूटनी के बाद हमारा नाम कहीं नहीं था।” — एक 38 वर्षीय निवासी ने कहा।
इस ग़लती ने साफ कर दिया कि पूरी तरह तैयार दस्तावेज़ भी उन्हें बेघर होने से बचा नहीं सकते थे।

अस्त‑व्यस्त ईंटों के सहारे जीना
एक प्रभावित निवासी, उमा देवी अब पेड़ के नीचे सोती हैं। उनका पति पक्षाघात की वजह से बिस्तर पर है, और उसकी दवाओं पर ₹3,000 मासिक खर्च आता है। उनका किशोर पुत्र कोशिश करके ₹200–₹400 कमा पाता है।
उमा अब खुद ढहाए गए घर की ईंटें बटोरती, सफा करती और स्क्रैप डीलरों को बेचती हैं।

“मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे ईंटें तोड़कर ही अपनी ज़िंदगी चलानी पड़ेगी। पति की देखभाल, बेटे का खर्च और खुद की जिंदगी—सब इसी में बंधा है।”
ठहरा आश्रय और सुरक्षा की कमी ने एक महिला को रोज़मर्रा की लड़ाई में डाल दिया है।

महिलाओं के लिए बुनियादी ज़रूरतों की मुश्किलें
घर उजाड़े जाने से साफ पानी का अभाव, टॉयलेट का अधिक दूर होना—ये हालात बन गए हैं। कई-बहनें कहती हैं कि अंधेरे में 500 मीटर का सफ़र करना उनके लिए असुरक्षित और मुश्किल भरा है।
माँ-बच्चों की चिंता बढ़ती जा रही है, खासकर मानसून में, जब साफ़-सफ़ाई और खाने-पीने की व्यवस्था अस्थिर हो गई है।

प्रवासियों के पास न कोई घर, न कोई गंतव्य
जो लोग यूपी-बिहार से काम की तलाश में दिल्ली आए थे, उन्हें फैक्टरी, दुकान या दैनिक मज़दूरी देकर गुज़ारा करना पड़ता था। पहले ही उनकी आर्थिक स्थिति नाजुक थी, अब घर जाने की संभावना कुछ और दूर हो गई है।
“हर चुनाव से पहले नेता आते हैं, घर, पानी और नोकरी का वादा करते हैं। वोट मिलते ही desaparecer हो जाते हैं। फिर हमपे वो सब टूटता है।” — एक और बेघर शख़्स ने कहा।

“हमारे घर कैमरे में ध्वस्त हो गए — लेकिन कोई नहीं आया ये जानने कि हम कैसे जी रहे हैं”
रहिवासी कहते हैं कि उन्होंने सभी ज़रूरी दस्तावेज जमा किए थे, कई नोटिस भी आए थे। लेकिन जब अंतिम सूची आई तो उनके नाम गायब थे—कुछ 2015 की कट‑ऑफ डेट की वजह से, तो कुछ दस्तावेजी ग़लतियों की वजह से।
इसके बाद भी पूरे मकानों को तोड़ दिया गया, ऊपरी मंज़िल के बजाय जमीन हिला दी गई।
अब कई हफ़्ते बाद वे कहते हैं कि जो लोग इंफॉरेंस के समय कैमरे ले गए थे—वो भी वापस नहीं आए।

“जब हमारे मकानों को तोड़ा गया, तब हमें दिखाया गया। लेकिन जब हम फुटपाथ पर जी रहे हैं तो हमें कोई नहीं देख रहा।” — एक निवासी द्वारा कहा गया।
इस प्रकृति की विध्वंसकारी कार्रवाई ने न केवल आश्रय को नष्ट किया है, बल्कि विस्थापितों की गरिमा और सुरक्षा को भी क्षतिहेडलाइन:
’जहाँ झुग्गी वहाँ मकान’ – वज़ीरपुर में ढहाए गए घरों के बाद यह वादा धराशायी

( This article is written by Dia Menon, Intern at News World India.)

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