क्या राहुल गांधी की एक और बात सच साबित हो गई?

जातिगत जनगणना पर मोदी सरकार के कदम से उठे बड़े सवाल

2024 के लोकसभा चुनावों में करारी सियासी चोट खाकर मोदी सरकार ने जातिगत जनगणना की बात को लेकर यू-टर्न लिया था। 30 अप्रैल 2025 को केंद्र सरकार ने घोषणा की थी कि वह जातिगत जनगणना करवाएगी। लेकिन अब, हाल ही में सरकार द्वारा जारी की गई जनगणना से जुड़ी अधिसूचना में इस वादे का कोई उल्लेख नहीं है। इस अधिसूचना ने नई बहस को जन्म दे दिया है – क्या मोदी सरकार ने फिर एक बार जनता के साथ वादा खिलाफी की है? क्या यह अधिसूचना विपक्ष के उन आरोपों को सही साबित करती है कि मोदी सरकार जातिगत जनगणना को लेकर जनता को गुमराह कर रही है?

सरकार द्वारा जारी इस अधिसूचना में जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में अक्टूबर 2026 में और शेष भारत में मार्च 2027 में जनगणना कराए जाने की बात कही गई है। लेकिन हैरानी की बात यह है कि इस पूरे दस्तावेज़ में कहीं भी ‘जातिगत’ शब्द का उल्लेख तक नहीं किया गया है। न तो इसमें जातियों की गणना की बात है और न ही सामाजिक-आर्थिक स्थिति से जुड़े कोई संकेत। सवाल यह है कि अगर सरकार वास्तव में जातिगत जनगणना के लिए प्रतिबद्ध होती, तो क्या यह जानकारी अधिसूचना में नहीं होती?

यह वही मोदी सरकार है जिसने पहले सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा था कि वह जातिगत जनगणना नहीं कराएगी क्योंकि यह उनकी नीति के खिलाफ है। अप्रैल 2021 में दिए इस हलफनामे के साथ-साथ संसद में भी सरकार ने यही रुख दोहराया था। इतना ही नहीं, 28 अप्रैल 2024 को खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जातिगत जनगणना की मांग करने वालों को “अर्बन नक्सल” तक कह दिया था। लेकिन जैसे ही 2024 के चुनाव में बीजेपी का “400 पार” का नारा “240 पर” अटक गया, वैचारिक हृदय परिवर्तन हुआ और 30 अप्रैल 2025 को सरकार ने घोषणा कर दी कि जातिगत जनगणना कराई जाएगी। सवाल यह है – क्या यह राजनीतिक दबाव में लिया गया फैसला था? क्या राहुल गांधी और अखिलेश यादव के द्वारा लगातार बनाए गए दबाव के कारण सरकार को अपनी नीति बदलनी पड़ी?

अब जब इस पर अमल का वक्त आया है, तो एक बार फिर वही पुरानी राजनीति दोहराई जा रही है। अधिसूचना में कोई स्पष्टता नहीं है, जाति का जिक्र नहीं है, और सबसे अहम बात – कोई डेडलाइन तय नहीं की गई है। यानि अब यह संदेह गहराता जा रहा है कि क्या यह घोषणा सिर्फ ‘हेडलाइन मैनेजमेंट’ का हिस्सा थी?

जनगणना के खर्च की बात करें तो सरकार ने खुद अनुमान लगाया था कि इस पूरी प्रक्रिया में लगभग 10,000 करोड़ रुपये खर्च होंगे। लेकिन 2025-26 के बजट में जनगणना संचालन निदेशालय को मात्र 575 करोड़ रुपये ही आवंटित किए गए। यह बजटीय गड़बड़ी साफ तौर पर सरकार की मंशा पर सवाल उठाती है। यदि सरकार सच में जातिगत जनगणना कराना चाहती, तो उसके लिए जरूरी बजट की व्यवस्था भी करती।

विपक्ष लगातार कहता आ रहा है कि केंद्र सरकार असली जातिगत जनगणना नहीं कराना चाहती, क्योंकि इससे देश की वास्तविक सामाजिक संरचना सामने आएगी – यह दिखेगा कि देश की 60% से ज्यादा ओबीसी आबादी आज भी सत्ता, शिक्षा और संसाधनों में हाशिये पर है। और जब तक यह आँकड़े सामने नहीं आते, नीतिगत बदलाव नहीं हो सकते। राहुल गांधी खुले मंचों से कहते हैं कि “जिस दिन असली जातिगत जनगणना हो गई, उसी दिन बीजेपी की राजनीति खत्म हो जाएगी।”

कांग्रेस अब यह मांग कर रही है कि केंद्र सरकार तेलंगाना मॉडल पर जातिगत जनगणना कराए – जहां व्यक्ति की जाति के साथ-साथ उसकी सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक और पेशागत स्थिति का भी डेटा लिया गया था। इसके मुकाबले बीजेपी के मॉडल में अब तक यह स्पष्ट नहीं किया गया कि क्या सिर्फ गिनती होगी या विस्तृत जानकारी भी एकत्र की जाएगी।

दरअसल, यह पूरा मामला बीजेपी के लिए अब उलटा पड़ता नजर आ रहा है। यह माना जा रहा था कि बीजेपी बिहार जैसे राज्यों में जातिगत जनगणना का एजेंडा चलाकर वोटों का ध्रुवीकरण करेगी, लेकिन अब खुद उस अधिसूचना से यह स्पष्ट नहीं हो रहा कि सरकार जातिगत डेटा एकत्र करना चाहती भी है या नहीं। ऐसे में राहुल गांधी और विपक्ष को एक और मौका मिल गया है सरकार को घेरने का।

जातिगत जनगणना केवल गिनती का मुद्दा नहीं है – यह सामाजिक न्याय की दिशा में एक ऐतिहासिक पहल हो सकती है। अगर यह ठीक से होती है, तो यह संविधान लागू होने के बाद और मंडल आयोग की सिफारिशों के बाद तीसरी सबसे बड़ी सामाजिक घटना मानी जा सकती है। लेकिन अगर इसे केवल घोषणा तक सीमित रखा गया, तो यह सरकार की सबसे बड़ी वादा-खिलाफी में गिनी जाएगी।

अब यह देखना बाकी है कि क्या मोदी सरकार इस पर सच में आगे कदम उठाएगी या फिर यह मुद्दा भी चुनावी राजनीति की चकाचौंध में कहीं खो जाएगा।

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