कुल्लू दशहरा : देवताओं का अनोखा लंका दहन

जहां देशभर में दशहरा रावण दहन के साथ खत्म होता है, वहीं हिमाचल प्रदेश का कुल्लू दशहरा विजयदशमी से ही शुरू होता है।
यह सात दिन तक चलने वाला पर्व न सिर्फ धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि देव संस्कृति और लोक परंपराओं का जीवंत प्रदर्शन भी है।

इस साल कुल्लू दशहरा 2 अक्टूबर से 8 अक्टूबर तक मनाया जाएगा। इसमें हजारों श्रद्धालु और देश-विदेश से आए पर्यटक शामिल होंगे।

क्यों देर से मनाया जाता है दशहरा?

कुल्लू में दशहरा देर से मनाने की परंपरा पौराणिक कथा से जुड़ी है।
मान्यता है कि भगवान राम ने विजयदशमी को रावण को तीर मारा था, लेकिन उसकी मृत्यु पूर्णिमा की रात को हुई थी।
इसी वजह से यहां दशहरा की शुरुआत विजयदशमी से होती है और उत्सव पूरे सात दिन चलता है।

भगवान रघुनाथ को समर्पित

कुल्लू दशहरा पूरी तरह भगवान रघुनाथ को समर्पित है।
1660 से चली आ रही परंपरा के अनुसार, कुल्लू के राजा जगत सिंह को रघुनाथ की मूर्ति के दर्शन से असाध्य रोग से मुक्ति मिली थी।
इसके बाद उन्होंने अपना राज्य भगवान को समर्पित कर दिया और दशहरे का आयोजन शुरू किया।

देवताओं का महाकुंभ

कुल्लू दशहरा को देवताओं का वार्षिक सम्मेलन भी कहा जाता है।

  • कुल्लू घाटी के 350 से ज्यादा देवी-देवता इसमें शामिल होते हैं।
  • ढोल-नगाड़ों और शंखनाद के बीच देवताओं के रथ ढालपुर मैदान में पहुंचते हैं।
  • यहां अस्थायी शिविरों में वे सात दिन तक विराजमान रहते हैं।

यह नजारा हिमाचल की देवभूमि की अद्भुत परंपरा का साक्षात प्रमाण है।

रथ यात्रा और शाही जलेब

उत्सव की शुरुआत भगवान रघुनाथ की भव्य रथ यात्रा से होती है।
दूसरे दिन से छठे दिन तक शाही जलेब निकाला जाता है, जिसमें राजा के वंशज छड़ीबरदार महेश्वर सिंह रथ के साथ नगर परिक्रमा करते हैं।
इस जुलूस में घाटी के देवी-देवता भी शामिल होकर उत्सव को और दिव्य बना देते हैं।

अनोखा लंका दहन

कुल्लू दशहरे का सबसे बड़ा आकर्षण सातवें दिन होने वाला लंका दहन है।
यहां रावण दहन नहीं होता, बल्कि देवी हिडिंबा की अगुवाई में यह अनुष्ठान सम्पन्न होता है।
इस दिन देवी को अष्टांग बलि दी जाती है और इसे ही लंका दहन कहा जाता है।

अंतरराष्ट्रीय पहचान

कुल्लू दशहरा को 2017 में औपचारिक रूप से अंतरराष्ट्रीय दर्जा मिला।
आज यह उत्सव सिर्फ धार्मिक ही नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और पर्यटन का वैश्विक मंच बन चुका है।
पिछले साल इसमें 20 से अधिक देशों के कलाकारों ने अपनी सांस्कृतिक प्रस्तुतियां दी थीं।

आस्था और व्यापार का संगम

दशहरा न सिर्फ धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि आर्थिक दृष्टि से भी अहम है।

  • लाखों श्रद्धालु और पर्यटक यहां जुटते हैं।
  • स्थानीय कारीगरों और व्यापारियों को बड़ा बाज़ार मिलता है।
  • करोड़ों रुपये का कारोबार होता है।

देवभूमि की असली झलक

कुल्लू दशहरा, हिमाचल की देव संस्कृति का दर्पण है।
ढोल-नगाड़ों की ध्वनि, देवताओं के रथ, भव्य जुलूस और विदेशी कलाकारों की प्रस्तुतियां इसे अद्वितीय बनाती हैं।

यह उत्सव बताता है कि क्यों हिमाचल को देवभूमि कहा जाता है।

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