सोशल मीडिया: आदत या लत?

आज के समय में सोशल मीडिया हमारी ज़िंदगी का अहम हिस्सा बन चुका है। बच्चे हों या बुज़ुर्ग, हर कोई इसका इस्तेमाल करता है। शुरुआत में यह एक साधारण आदत लगती है, लेकिन धीरे-धीरे यह एक गहरी लत का रूप ले रही है—खासतौर पर बच्चों और युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर इसका बुरा असर पड़ रहा है।
बच्चों पर असर: बचपन मोबाइल में उलझा
अब चार-पाँच साल के छोटे बच्चे भी मोबाइल लेकर वीडियो देखने लगते हैं। छह साल की उम्र में ही उन्हें स्क्रीन के बिना रहना मुश्किल लगने लगता है।
जो उम्र खेल-कूद, बाहर की दुनिया से जुड़ने और रचनात्मकता को बढ़ाने की होती है, उसमें बच्चे मोबाइल की चमक में खो रहे हैं।
इसका सीधा असर उनके:
- दिमाग़ी विकास
- नींद की गुणवत्ता
- आंखों की रोशनी
- और व्यवहारिक संतुलन पर साफ़ दिखता है।
युवाओं की स्थिति: आभासी दुनिया में असल अकेलापन
सिर्फ छोटे बच्चे ही नहीं, बल्कि 18 से 25 साल के युवा भी सोशल मीडिया लत के शिकार हैं।
हर पल इंस्टाग्राम, यूट्यूब और रील्स की दुनिया में खोए रहना अब “नॉर्मल” बन गया है। लेकिन सच ये है कि ये नॉर्मल नहीं है—बल्कि ये एक खतरनाक संकेत है।
युवाओं में:
- डिप्रेशन
- अकेलापन
- एंग्जायटी
- और नींद से जुड़ी समस्याएँ तेजी से बढ़ रही हैं।
सोशल मीडिया की नकली चमक, दिखावा और तुलना की भावना उन्हें अंदर से खोखला कर रही है।
लाइक्स और फॉलोअर्स की भूख ने असली रिश्तों और भावनात्मक जुड़ाव को पीछे छोड़ दिया है।
अब सवाल ये है — क्या सरकार को दखल देना चाहिए?
बिलकुल देना चाहिए। जब ये लत समाज के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर रही है, तो सरकार की भूमिका जरूरी हो जाती है।
सरकार को क्या करना चाहिए?
- 13 साल से कम उम्र के बच्चों को सोशल मीडिया से पूरी तरह दूर रखा जाए।
- 18 साल तक के बच्चों के लिए कंटेंट फिल्टर, स्क्रीन टाइम लिमिट और पैरेंटल कंट्रोल अनिवार्य हो।
- सोशल मीडिया ऐप्स पर मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी चेतावनी दी जाए—जैसे तंबाकू या शराब पर दी जाती है।
- स्कूलों में डिजिटल डिटॉक्स सेशन और सोशल मीडिया अवेयरनेस प्रोग्राम अनिवार्य किए जाएं।
सिर्फ माता-पिता नहीं, सरकार भी ज़िम्मेदार
बच्चों का मानसिक स्वास्थ्य सिर्फ परिवार की ज़िम्मेदारी नहीं है।
जब मोबाइल से बच्चा जितना जुड़ता है, उतना ही वह असल ज़िंदगी से कटता जाता है।
इसलिए ज़रूरी है कि सरकार, स्कूल और समाज—सभी मिलकर बचपन को बचाने की दिशा में ठोस कदम उठाएं।
बचपन को मोबाइल की स्क्रीन से नहीं, संवेदनशील सोच और सही दिशा से सुरक्षित किया जा सकता है।
(This article is written by Rhea Kaushik , Intern at News World India.)

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