बीजेपी की चुप्पी = मौन समर्थन
बयान से सेना, प्रधानमंत्री और राष्ट्र की गरिमा को ठेस

मौन सहमति का प्रतीक होता है, और अगर इसी सिद्धांत को लागू करें तो मध्य प्रदेश के मंत्री विजय शाह के खिलाफ भारतीय जनता पार्टी की चुप्पी अपने आप में एक प्रकार का समर्थन ही प्रतीत होती है। एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की खुलकर सराहना कर रहे हैं, तिरंगा यात्राएं आयोजित की जा रही हैं, और देशभक्ति की भावना चरम पर है—वहीं, दूसरी तरफ, बीजेपी के वरिष्ठ मंत्री विजय शाह द्वारा सेना की बहादुर अफसर कर्नल सोफिया कुरैशी को सार्वजनिक मंच से आतंकवादियों की “बहन” कह देना न सिर्फ अस्वीकार्य है, बल्कि राष्ट्रीय एकता और सेना की गरिमा पर भी सीधा हमला है।
यह स्थिति तब और चिंताजनक हो जाती है जब हाई कोर्ट के आदेश के बावजूद बीजेपी कोई त्वरित और कठोर कार्रवाई नहीं करती। विजय शाह के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाने में भी अदालत को सख्त रुख अपनाना पड़ा। यह बताता है कि सरकार ने केवल कानूनी दबाव में कार्रवाई की, राजनीतिक नैतिकता के तहत नहीं। इससे यह धारणा और मजबूत होती है कि पार्टी मंत्री को बचाने का प्रयास कर रही है, न कि अनुशासन लागू करने का।
विजय शाह का भाषण प्रधानमंत्री मोदी की छवि और ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की गंभीरता को भी ठेस पहुंचाता है। उन्होंने कहा, “जिन लोगों ने हमारी बेटियों का सिंदूर उजाड़ा था, मोदी जी ने उन्हीं की बहन भेजकर उनकी ऐसी की तैसी करा दी।” यह बयान, जिसमें साफ तौर पर धार्मिक पहचान के आधार पर सेना की अफसर को निशाना बनाया गया, न सिर्फ शर्मनाक है, बल्कि यह देश की सेना के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर भी सवाल खड़े करता है।
हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट दोनों ने मंत्री की भाषा को ‘गटर की भाषा’ बताया और कर्नल सोफिया को राष्ट्र की गौरवशाली बेटी कहा। कोर्ट ने इस बयान को भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता के लिए खतरनाक माना। फिर भी न तो मुख्यमंत्री मोहन यादव ने बर्खास्तगी की सिफारिश की, न ही पार्टी ने कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई की। जबकि 2004 में हुबली केस के समय उमा भारती ने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दिया था।
सरकारी महाधिवक्ता द्वारा कोर्ट में मंत्री के पक्ष में दलील देना, और मीडिया पर तोड़-मरोड़कर पेश करने का आरोप लगाना यह साफ करता है कि सरकार हर स्तर पर मंत्री को बचाने की कोशिश कर रही है। सुप्रीम कोर्ट तक को यह कहना पड़ा कि “आप मंत्री होकर ऐसी भाषा का इस्तेमाल कैसे कर सकते हैं?”
माफीनामा भी सिर्फ औपचारिकता भर लग रहा है—वीडियो में मंत्री हँसते दिखे। यह शर्मिंदगी नहीं, बल्कि सत्ता का दंभ अधिक प्रतीत होता है। पार्टी की तरफ से रात को कर्नल सोफिया के घर प्रतिनिधिमंडल भेजना एक प्रतीकात्मक कदम था, लेकिन वह भी तब जब मामला पहले से सार्वजनिक आक्रोश और न्यायपालिका की सख्ती की वजह से बड़ा बन चुका था।
यह स्पष्ट है कि बीजेपी इस पूरे घटनाक्रम में एक स्पष्ट, त्वरित और सख्त रुख लेने से बचती रही है। बजाय इसके, माफी और मीडिया की भूमिका को बहाना बनाकर मंत्री को राजनीतिक संरक्षण देने की कोशिशें की गईं। सवाल यह उठता है कि क्या यह सिर्फ एक मंत्री को बचाने की कोशिश है, या फिर इससे कहीं अधिक गहरी और चिंताजनक राजनीतिक प्रवृत्ति झलकती है—जहाँ सत्ता, जवाबदेही से बड़ी हो गई है?

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