जब ख़्वाब बन जाते हैं खामोश चीख़ें…

पिछले एक दशक में भारत में छात्र खुदकुशी के मामलों में 70% तक की वृद्धि हुई है।
2011 में जहाँ यह आंकड़ा लगभग 7,700 था, वहीं 2022 में यह 13,044 तक पहुँच गया — यानी देश में हर 13वींं खुदकुशी करने वाला एक छात्र है।

महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु इस सूची में सबसे ऊपर हैं।
मात्र 18 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में भी, लगभग 8% मामलों में परीक्षा में असफलता, और 30% में पारिवारिक तनाव बड़ी वजह बनती है। 13% छात्र शारीरिक या मानसिक बीमारियों से जूझ रहे होते हैं — जिनमें से 58% मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी होती हैं।

पढ़ाई ही नहीं, दबाव और भी हैं

आज छात्र सिर्फ किताबों के बोझ तले नहीं दबे हैं।
उन पर प्रतियोगी परीक्षाओं की दौड़, अकादमिक अनिश्चितता, घर की आर्थिक स्थिति, और समाज की उम्मीदों का पहाड़ टूटा पड़ा है।

कोचिंग हब्स — जैसे कोटा — में माहौल इतना प्रतिस्पर्धी है कि असफलता का डर हर पल उन्हें खाता है।
वे एक खराब परिणाम को व्यक्तिगत नाकामी और परिवार की उम्मीदों से धोखा मानने लगते हैं।

मदद नहीं, खामोशी मिलती हैं

कई स्कूल और कॉलेजों में काउंसलर नहीं होते
कई बार शिकायतें नहीं सुनी जातीं
जातिगत भेदभाव, यौन उत्पीड़न और रैगिंग के मामलों में छात्र सिस्टम द्वारा अनसुने कर दिए जाते हैं
ऐसे में उनकी आंतरिक पीड़ा धीरे-धीरे घातक बन जाती है।

डरावने आँकड़े

  • 2013 से 2022 के बीच छात्र खुदकुशी में 64% की वृद्धि हुई।
  • हर साल करीब 4% की औसत बढ़ोतरी — जो देश की सामान्य खुदकुशी दर से दोगुनी है।

सिर्फ 5 राज्य — महाराष्ट्र, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और झारखंड —
मिलकर लगभग आधे (49%) छात्र खुदकुशी के मामले दर्ज करते हैं।

एक छात्र के मन में क्या चलता है?

लगातार तनाव में रहने से शरीर में cortisol जैसे हार्मोन बढ़ते हैं।
इससे मस्तिष्क के वे हिस्से प्रभावित होते हैं जो याद्दाश्त, निर्णय क्षमता और भावनात्मक नियंत्रण संभालते हैं।

छात्र खुद को असफल, अकेला, और परिवार पर बोझ महसूस करने लगते हैं।
वे अपनी भावनाएँ किसी से साझा नहीं कर पाते — क्योंकि समाज में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर कलंक जुड़ा है।

हम क्या कर सकते हैं?

1. बातचीत शुरू करें

घर और स्कूल में मानसिक स्वास्थ्य पर खुलकर चर्चा करें।

2. बिना निर्णय के सुनें

यदि कोई छात्र खुदकुशी की बात करे, तो उसे दोष न दें — उसे समझें और साथ दें

3. ‘प्रेशर कल्चर’ को चुनौती दें

विद्यार्थियों को केवल नंबर से मत आँकिए। उनके प्रयास, संवेदनशीलता और संघर्ष को भी महत्व दें।

4. परामर्श को अनिवार्य बनाएं

हर स्कूल-कॉलेज में trained counsellors और grievance redressal सिस्टम हों।

5. चेतावनी संकेतों को पहचानें

अगर कोई छात्र लगातार चुप, अलग-थलग, या असहाय दिखे — तो पहल करें।

अंतिम संदेश

हर खुदकुशी एक अधूरी कहानी होती है।
जो शायद सिर्फ एक बात, एक दोस्ताना हाथ, या एक खुली बातचीत से बदल सकती थी।

हमें अब छात्र को सिर्फ एक रोल नंबर, एक रैंक, या एक नतीजा नहीं —
बल्कि एक संवेदनशील इंसान के रूप में देखना शुरू करना होगा।

(This article is written by Priyanshu Mathur and Vanshika Gupta, Intern at News World India.)

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